Written by– Sakshi Srivastava
आपको बता दें यह मामला दहेज से संबंधित है, जिसमें एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी के परिवार के खिलाफ बिना मांगे दहेज देने के लिए अपराधिक कार्रवाई की मांग की थी। अदालत ने याचिका खारिज कर दी क्योंकि वह व्यक्ति अदालत को यह स्पष्ट करने में विफल रहा कि उसने दहेज क्यों दिया और क्यों यह एक अपराधिक मामले के रूप में देखा जाए।
अदालत ने यह पाया कि याचिका में वह पर्याप्त आधार या प्रमाण नहीं थे जो यह साबित कर सकें कि यह दहेज का मामला अपराध की श्रेणी में आता है। दहेज विरोधी कानून के तहत, यदि किसी व्यक्ति पर दहेज देने या लेने का आरोप है, तो उसे उचित प्रमाणों और तर्कों के साथ अदालत में पेश करना होता है। बिना ठोस आधार या स्पष्ट कारण के किसी अपराधिक कार्रवाई की मांग नहीं की जा सकती।
एक दामाद ने अपनी ससुरालियों के खिलाफ कोर्ट में शिकायत दर्ज कराई, जिसमें उसने आरोप लगाया कि ससुरालियों ने उसे बिना मांगे दहेज दिया। इस मामले में दामाद का कहना था कि यह दहेज उसे परेशान करने और उसकी सहमति के बिना दिया गया था, जिससे उसे मानसिक और भावनात्मक नुकसान हुआ।
दामाद की शिकायत के बाद, अदालत ने मामले की गंभीरता को समझते हुए जांच की दिशा में कदम उठाने का आदेश दिया। अदालत ने ससुरालियों को तलब किया और दामाद की शिकायत पर FIR (First Information Report) दर्ज करने की प्रक्रिया शुरू करने की बात कही।
इस तरह के मामलों में कानूनी उपायों का पालन करना आवश्यक है, ताकि किसी भी पक्ष के अधिकारों का उल्लंघन न हो।
दामाद ने कोर्ट में अपनी बात रखी और उसे न्याय मिलने की उम्मीद जताई। इस फैसले के बाद यह मामला कानूनी प्रक्रिया में आगे बढ़ेगा और ससुरालियों के खिलाफ उचित कार्रवाई की जाएगी। यह मामला एक व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी के परिवार के खिलाफ दहेज देने के लिए प्राथमिकी दर्ज करने की मांग से संबंधित है। जुलाई 2022 में, मजिस्ट्रेट अदालत ने उस व्यक्ति की याचिका खारिज कर दी थी, जिसमें उसने अपने सास-ससुर और साले के खिलाफ दहेज के मामले में प्राथमिकी दर्ज करने की अपील की थी। इस फैसले के खिलाफ व्यक्ति ने पुनर्विचार याचिका दायर की थी, जिसे अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश नवजीत बुद्धिराजा द्वारा सुना जा रहा था।
अदालत में यह भी पाया गया कि इस व्यक्ति पर अपनी पत्नी के परिवार द्वारा क्रूरता (क्रूरता के आरोप) का मामला चल रहा था, जो कि दहेज उत्पीड़न से संबंधित हो सकता है। ऐसे मामलों में अदालत यह तय करती है कि क्या दहेज देने का कोई ठोस प्रमाण है और क्या उस पर प्राथमिकी दर्ज करने की जरूरत है।
यह याचिका इस बात पर केंद्रित थी कि क्या मजिस्ट्रेट अदालत का आदेश गलत था और क्या व्यक्ति के द्वारा दहेज देने के आरोप को एक अपराध के रूप में मानते हुए प्राथमिकी दर्ज करने की अनुमति दी जानी चाहिए। पुनर्विचार याचिका में व्यक्ति को यह साबित करना होता है कि पहले के आदेश में कोई कानूनी त्रुटि हुई है, जिससे मामले में न्याय नहीं हुआ।
अदालत ने इस मामले में यह स्पष्ट किया कि जब तक दोनों पक्षों द्वारा पर्याप्त सबूत पेश नहीं किए जाते, तब तक यह निर्धारित करना मुश्किल है कि दहेज की मांग की गई थी या नहीं। अदालत ने कहा कि दोनों पक्षों को यह साबित करना होगा कि दहेज की मांग की गई थी या नहीं, और इस पर प्रभावी निर्णय केवल मुकदमे के दौरान पेश किए गए प्रमाणों के आधार पर ही लिया जा सकता है।
इस संदर्भ में, अदालत ने कुमार (संशोधनवादी) के बयान का उल्लेख किया, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि उन्होंने कभी दहेज की मांग नहीं की थी। हालांकि, इसके बावजूद उनके खाते में 25,000 रुपये और 46,500 रुपये की राशि भेजी गई थी, जो कि उनके खिलाफ एक महत्वपूर्ण तथ्य हो सकता है। अदालत ने यह माना कि अगर कोई राशि भेजी गई है, तो इसका कुछ कारण हो सकता है, और यह तथ्य मामले में पक्षों के बयान और सबूतों को लेकर न्यायपूर्ण निर्णय पर असर डाल सकता है।
अर्थात, अदालत ने इस मामले में केवल दावे और आरोपों के आधार पर कोई निर्णायक फैसला नहीं लिया, बल्कि यह माना कि मुकदमे के दौरान दोनों पक्षों द्वारा पेश किए गए सबूतों के आधार पर ही इस मामले पर प्रभावी और उचित निर्णय लिया जा सकता है।
पाँच अक्तूबर को पारित आदेश में न्यायाधीश नवजीत बुद्धिराजा ने इस मामले पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि पहले ही कुमार के ससुराल वालों के खिलाफ आईपीसी की धारा 498ए (पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा एक विवाहित महिला के साथ क्रूरता करना) के तहत प्राथमिकी दर्ज की जा चुकी थी। इस संदर्भ में, अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि कुमार के ससुराल वालों ने एफआईआर दर्ज करते समय यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया था कि उन्होंने कुमार को दहेज दिया था, और यह स्वीकारोक्ति दहेज निषेध अधिनियम (1961) के तहत एक अपराध है।
अदालत ने कहा कि ससुराल वालों द्वारा की गई यह स्वीकारोक्ति विशेष महत्व रखती है, क्योंकि यह दहेज देने की क्रिया को एक अपराध के रूप में मान्यता देती है। हालांकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि इस मामले में वास्तविक आरोपों और सबूतों की पुष्टि मुकदमे के दौरान ही की जा सकती है।
अदालत ने दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3 का हवाला दिया, जो दहेज लेने या देने पर दंड का प्रावधान करता है। इस धारा के तहत दहेज के लेन-देन को एक गंभीर अपराध माना जाता है, और यदि कोई व्यक्ति दहेज की मांग करता है या देता है, तो उसे दंडित किया जा सकता है।
अदालत ने मजिस्ट्रेट की टिप्पणियों को भी दर्ज किया, जिसमें कहा गया कि कुमार ने यह तथ्य छुपाया था कि उसकी पत्नी और ससुराल वालों ने एफआईआर में उसके खिलाफ “लगातार दहेज की मांग के गंभीर आरोप” लगाए थे। यह बयान महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह दर्शाता है कि दहेज की मांग का मामला पहले से ही गंभीर रूप में दर्ज किया जा चुका था, और कुमार के खिलाफ आरोप थे कि वह अपनी पत्नी से दहेज की मांग कर रहा था।
अदालत ने यह भी माना कि इस प्रकार के आरोपों को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता और इनका असर इस मामले में विचाराधीन निर्णय पर पड़ सकता है। अदालत ने यह संकेत दिया कि दहेज की मांग के आरोपों को ध्यान में रखते हुए, मामले की पूरी जांच और मुकदमे के दौरान सभी सबूतों को देखा जाएगा। इस प्रकार, अदालत ने इस मामले को और गहराई से जांचने की आवश्यकता पर जोर दिया।