Written by– Sakshi Srivastava
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण आदेश जारी किया है जिसमें बुलडोजर एक्शन (अवैध निर्माणों को तोड़ने) के मामले में कुछ खास निर्देश दिए हैं। कोर्ट ने कहा कि किसी भी तोड़फोड़ की कार्रवाई से पहले संबंधित लोगों को कम से कम 15 दिन पहले नोटिस देना जरूरी होगा। इसके अलावा, यह भी कहा गया है कि यह कार्रवाई पूरी तरह से निर्धारित दिशानिर्देशों के तहत ही की जानी चाहिए।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बिना उचित नोटिस और नियमों का पालन किए बिना किसी भी अवैध निर्माण को तोड़ने की कार्रवाई नहीं की जा सकती। यह आदेश उन स्थानों के लिए है, जहां अवैध निर्माण की शिकायतें आती हैं, और प्रशासन को इसे सही तरीके से लागू करने की जिम्मेदारी दी गई है।
आपको बता दें सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को आरोपियों के खिलाफ बुलडोजर एक्शन पर रोक लगाने की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए संविधान में दिए गए उन अधिकारों को रेखांकित किया, जो राज्य की मनमानी कार्रवाई से लोगों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। कोर्ट ने कहा कि कानून का शासन यह सुनिश्चित करता है कि नागरिकों को यह विश्वास हो कि उनकी संपत्ति को बिना किसी उचित कारण और वैध प्रक्रिया के नहीं छीना जा सकता।
कोर्ट ने यह भी कहा कि किसी भी प्रकार की सरकारी कार्रवाई से पहले नागरिकों के अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए, और अगर कोई कार्रवाई संविधान और कानून के अनुरूप नहीं है, तो उसे तुरंत रोका जाना चाहिए। इस बयान के साथ, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि कानून के तहत सभी नागरिकों को न्याय और सुरक्षा मिलनी चाहिए, और कोई भी त्वरित और बिना उचित कानूनी प्रक्रिया के कार्रवाई नहीं की जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि उसने शक्ति के विभाजन के सिद्धांत पर विचार किया है और यह समझा है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका को अपने-अपने कार्यक्षेत्र में कार्य करने की स्वतंत्रता है। न्यायपालिका को न्यायिक कार्यों का दायित्व सौंपा गया है, और कार्यपालिका को न्यायिक निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि कार्यपालिका किसी व्यक्ति का घर केवल इस आधार पर तोड़ देती है कि वह आरोपी है, तो यह शक्ति के विभाजन के सिद्धांत का उल्लंघन है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि जब सरकारी अधिकारी कानून को अपने हाथ में लेकर इस प्रकार की अत्याचारपूर्ण कार्रवाइयां करते हैं, तो उन्हें जवाबदेही के तहत लाया जाना चाहिए। इस प्रकार, कोर्ट ने सरकारी अधिकारियों को चेतावनी दी कि वे कानून के दायरे में रहकर कार्य करें और नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन न करें।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्पष्ट रूप से कहा कि कार्यपालिका (सरकारी अधिकारी) किसी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहरा सकती, न ही वह न्यायाधीश बन सकती है, जो किसी आरोपी की संपत्ति को तोड़ने पर फैसला करे। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि किसी व्यक्ति को अपराध का दोषी ठहराने के बाद उसके घर को तोड़ा जाता है, तो यह गलत होगा, क्योंकि इस तरह का कदम कार्यपालिका का अवैध हस्तक्षेप होगा और यह कानून को अपने हाथ में लेने के बराबर होगा।
कोर्ट ने यह भी कहा कि आवास का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, जिसे भारतीय संविधान में सुनिश्चित किया गया है। किसी निर्दोष व्यक्ति को इस अधिकार से वंचित करना पूरी तरह असंवैधानिक होगा। इस प्रकार, कोर्ट ने सरकार और कार्यपालिका को यह याद दिलाया कि किसी भी कार्रवाई को संविधान और कानून के दायरे में रहकर ही किया जा सकता है, और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा कि किसी भी संपत्ति का विध्वंस तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक उसके मालिक को पंद्रह दिन पहले नोटिस न दिया जाए। यह नोटिस पंजीकृत डाक के जरिए भेजा जाएगा और साथ ही इसे उस संपत्ति की बाहरी दीवार पर भी चिपकाया जाएगा। नोटिस में अवैध निर्माण की प्रकृति, उल्लंघन का विवरण और विध्वंस के कारण स्पष्ट किए जाएंगे। इसके अतिरिक्त, विध्वंस की प्रक्रिया की वीडियोग्राफी भी की जाएगी, ताकि किसी प्रकार की गलतफहमी या अनियमितता से बचा जा सके। अगर इन दिशा-निर्देशों का उल्लंघन होता है, तो इसे कोर्ट की अवमानना माना जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि आम नागरिक के लिए अपने घर का निर्माण वर्षों की मेहनत, सपनों और आकांक्षाओं का परिणाम होता है। घर केवल एक भौतिक संरचना नहीं, बल्कि सुरक्षा और भविष्य की एक सामूहिक आशा का प्रतीक है। यदि किसी का घर विध्वस्त किया जाता है, तो अधिकारियों को यह साबित करना होगा कि उनके पास ऐसा कदम उठाने का कोई और विकल्प नहीं था और यह कदम न्यायसंगत था। इस आदेश के माध्यम से कोर्ट ने नागरिकों के अधिकारों और उनकी संपत्ति की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी किए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले एक अंतरिम आदेश जारी किया था, जिसमें अधिकारियों को निर्देश दिया गया था कि जब तक कोर्ट से अगला आदेश न मिले, तब तक वे किसी भी प्रकार के विध्वंस अभियान को रोकें। हालांकि, यह आदेश अवैध निर्माणों, विशेष रूप से सड़क और फुटपाथ पर बने धार्मिक ढांचों पर लागू नहीं था। कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि सार्वजनिक सुरक्षा सर्वोपरि है और किसी भी धार्मिक संरचना को सड़कों के बीच में नहीं बनाना चाहिए, क्योंकि इससे सार्वजनिक मार्गों में रुकावट उत्पन्न होती है और यातायात की समस्याएँ पैदा हो सकती हैं।
सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दौरान जस्टिस बी.आर. गवाई ने इस महत्वपूर्ण बिंदु पर गौर किया कि किसी व्यक्ति पर अपराध का आरोप लगने या उसे दोषी ठहराए जाने के आधार पर उसके घरों और दुकानों को बुलडोजर से तोड़ने का कोई वैध आधार नहीं है। उन्होंने कहा कि यह कदम केवल तब उठाया जा सकता है, जब किसी निर्माण में कोई स्पष्ट और कानूनी उल्लंघन हो, न कि किसी आरोप या दोषारोपण के आधार पर।
जस्टिस गवाई ने आगे कहा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, और जो भी निर्णय लिए जाते हैं, वे सभी नागरिकों के लिए समान रूप से लागू होते हैं। किसी एक धर्म के लिए अलग कानून नहीं हो सकता, क्योंकि संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान करता है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि किसी समुदाय के सदस्य के द्वारा अवैध निर्माण किया गया है, तो उसे हटा दिया जाना चाहिए, चाहे वह किसी भी धर्म या विश्वास का हो।
इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कानून सभी के लिए समान है और कोई भी सरकारी कार्रवाई धर्म, जाति या विश्वास के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकती।
जी हां, सितंबर में संयुक्त राष्ट्र के प्रतिवेदक (जो संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ होते हैं) ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि सजा के तौर पर किए जाने वाले विध्वंस को मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन माना जा सकता है। उन्होंने यह भी चेतावनी दी थी कि ऐसी कार्रवाइयां अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ अपमानजनक व्यवहार के रूप में सामने आ सकती हैं और यह राज्य के हाथों ज़मीन हड़पने का एक तरीका बन सकती हैं।
प्रतिवेदक ने इस पर जोर दिया था कि किसी भी प्रकार के विध्वंस, विशेषकर जब उसे सजा के रूप में लागू किया जाता है, वह मानवाधिकारों की गंभीर उल्लंघना हो सकती है, क्योंकि यह व्यक्तियों को उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित करता है, जैसे कि आवास का अधिकार, जो कि एक मौलिक मानवाधिकार है। यह अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ भेदभावपूर्ण कदम हो सकता है और उनके खिलाफ राज्य द्वारा शोषण का एक रूप हो सकता है।
इस बयान के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने भी विध्वंस कार्यों से जुड़ी कानूनी प्रक्रियाओं को लेकर दिशा-निर्देश जारी किए, ताकि किसी भी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न हो और राज्य की कार्यवाही न्यायसंगत और संवैधानिक दायरे में हो।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से यह सुनिश्चित होगा कि नागरिकों को उनके अधिकारों का उल्लंघन नहीं होने पाएगा और वे अपनी आवाज उठाने का उचित समय प्राप्त करेंगे।